शिक्षित अनपढ़ : पाठीपूर्णा पूर्णाराम 'मामा श्री'
दयाराम महरिया, कूदन(सीकर)।
पूज्य पूर्णाराम जी का जन्म विक्रम संवत् 1995( सन् 1938 )में जायल (नागौर) के निकट गांव राजोद में एक किसान परिवार में हुआ ।उनके एक भाई वह दो बहनें थी। भाई की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई ।उनका वैवाहिक जीवन भी मात्र एक साल का रहा ।नागौर को जाटों का रोम कहा जाता है। प्राचीन समय में वहां पर जाटों के गणराज्य थे ।लोक देवता तेजाजी के पिताजी भी धोलिया गणराज्य के प्रमुख थे। प्राचीन राजाओं की तरह जाटों के समृद्ध एवं प्रमुख व्यक्तियों में बहुपत्नी प्रथा थी। पूर्णाराम जी की दोनों बहनों का विवाह निकटवर्ती रामपुरा, दूगोली के एक ही व्यक्ति पूर्णराम जी जाखड़ के साथ हुआ था ।
पूर्णाराम जी खेती व पशुपालन करते । एक ऊंटनी हथवार ( जिसका बच्चा मर गया हो) थी। उसका दूध निकालकर वे विद्यालय के बच्चों को पिलाने लगे । धीरे- धीरे उनका लगाव विद्यार्थियों से बढ़ता गया । वे खेती की आमदनी को भी विद्यार्थियों पर व्यय करने लगे । विद्यार्थियों को स्कूल में जाकर लेखन सामग्री देने के साथ मिठाई, टॉफी -गोलियां आदि बांट कर उन्हें असीम आनंद की अनुभूति होती थी।धीरे-धीरे वे अपना दायरा बढ़ाते गए। दूर-दूर तक विद्यालयों में जाकर विद्यार्थियों को वस्तुएं बांटने लगे । ध्यातव्य है कि वे स्वयं अनपढ़ थे परंतु पढ़ने वाले बच्चों के प्रति उनका बड़ा लगाव था। वे उपहार एवं मिठाई भी पढ़ने वाले(पाठी ) बच्चों को ही देते तथा उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी करते थे । यदि किसी बालक ने विद्यालय छोड़ दिया तो उसको किसी तरह का उपहार या मिठाई नहीं देते थे ।वस्तुतः पूज्य पूर्णाराम ' पाठीपूर्णा ' थे ।
वे लगभग 40 वर्ष के थे तब उनके पिताजी का देहांत हो गया । उनकी माताजी अकेली ही घर पर रहती । किसान को अपनी जान से भी प्रिय जमीन होती परंतु पूर्णाराम जी को जमीन से प्रिय विद्यार्थी लगते थे। अतः वे अपनी पुश्तैनी जमीन बेचकर उसकी आय भी विद्यार्थियों पर व्यय करने लगे । गांव-घर छोड़ कर घुमक्कड़ और पुश्तैनी जमीन बेचकर वे फक्कड़ हो गए ।अंत में मात्र 14 बीघा(2.25 हैक्टेयर )जमीन शेष रही जो उन्होंने मायरे (भात ) में अपनी बहनों को दे दी ।वे सभी विद्यार्थियों को भांजा- भांजी (बहन की संतान) कहते थे इसलिए विद्यार्थी उन्हें 'मामा' कहने लगे ।कालांतर में उनके पास आय का कोई साधन नहीं रहा तो वे स्थान -स्थान पर जाकर लोगों से धन लेकर विद्यार्थियों में बांटने लगे । विशेषतः जिनको कभी उन्होंने विद्यार्थी जीवन में उपहार या आर्थिक सहायता दी थी उनसे अधिकार के साथ सहयोग लेते । जन-सागर से पानी( धन ) लेकर उसे मीठा कर बादल की तरह बिना किसी भेदभाव के खेतों( विद्यालयों ) में बरसते ।
ईसाई धर्मावलंबी सांता क्लॉज नामक एक संत पुरुष को मानते हैं जो क्रिसमस के पहली रात्रि को चुपचाप अच्छे बच्चों के बिस्तर पर उपहार-मिठाई सामग्री रख जाता है । दरअसल संत निकोलस जो ईसामसीह के 280 वर्ष पश्चात हुए थे, उनको बच्चों को उपहार-मिठाई सामग्री बांटने में बड़ा आनंद आता था।कालांतर में उनको ही सांता क्लॉज कहने लगे ।हिंदू धर्म में मामा अपने भानजों को उपहार मिठाई देने की परंपरा है। अतः पूर्णाराम जी को मामा कहने लगे ।वे आधुनिक सांता क्लॉज( संत निकोलस) थे ।
पूर्णाराम जी ने अपना तन -मन- धन विद्यार्थी सेवा में समर्पित कर दिया परंतु उनको जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला ।यह शाश्वत नियम है कि साधारण मनुष्य जब असाधारण काम करता है तो भी समाज उसकी बड़ाई नहीं करता । श्रीकृष्ण और हनुमान दोनों ने ही गिरी को धारण किया परंतु हनुमान को गिरधर कोई नहीं कहता है । रहीम जी ने लिखा है -
बड़ो काम छोटो करे, तो न बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहे न कोय ।।
19जनवरी, 2022 को 'पूर्णा' ,पूर्ण में समा गए
स्थानीय जन समुदाय ने अवश्य उन्हें' जगत मामा' के खिताब से सम्मानित किया। लेखक उन्हें श्रद्धांजलि देने दिनांक 24 जनवरी, 2022 को उनके पैतृक ग्राम राजोदा गया। वहां पता चला कि उनकी विधिवत बैठक उनके बहनों के ससुराल के गांव रामपुरा ए में है। मैंने रामपुरा का पता जब ग्राम के सार्वजनिक चौक में पूछा तो देखते ही देखते कई युवक वहां इकट्ठे हो गए और उन्होंने कहा कि रामपुरा की ढाणी में आपको वहां जाने में दिक्कत होगी । अतः हम छोड़ कर आएंगे । उनमें से एक उत्साही युवक श्री मुकेश रेवाड़ छोड़ कर आए । राजोदा ग्रामवासियों को बड़ा गर्व था कि उनके गांव में मामा श्री पैदा हुए । गांव के सार्वजनिक चौक में फोटो रखकर वहां 'बैठक' (श्रद्धांजलि कार्यक्रम) भी बारह दिन रखी। रामपुरा में उनके सगे भानजे श्री नारायण राम जाखड़ ने मुझे बताया की जगत मामा उनके पास विगत 3 वर्ष से थे । उससे पहले उन्हें कई वर्षों से पता नहीं था कि वे कहां हैं ? वे 3 वर्ष पहले बिल्कुल अंधे हो गए तो बीकानेर की तरफ के किसी गांव के लोग उन्हें यहां छोड़ कर गए थे । तब से वे हमारे पास रह रहे थे । अंधे होने के कारण वे स्वयं इधर-उधर नहीं जा पाते थे परंतु उनकी इच्छा सदैव विद्यालय में जाने की रहती थी। मैंने उनकी बहन से पूछा कि रक्षाबंधन पर राखी बंधवाने के लिए आते थे क्या ? उन्होंने जवाब दिया कि वह कभी रक्षाबंधन पर नहीं आए । उनके भानजों ने बताया कि उनकी नानी अंधी हो गई थी । अतः वह कई वर्ष हमारे घर पर ही रही ।उनकी मृत्यु के चार-पांच दिन बाद मामा आए थे ।उनके सात सगे भानजे हैं परंतु उन्होंने सहस्रों विद्यार्थियों को अपना भानजा माना इसलिए 'जगत मामा' कहलाए।धनगणना सूची की बात छोड़ो उनका तो जनगणना सूची में भी नाम दर्ज नहीं था ।सहस्रों विद्यार्थियों को सहस्रों धन-दान तो किया परन्तु मतदान कभी नहीं किया। उनके भानजों से मैंने पूछा कि उनको किसी तरह की इच्छा थी क्या ? उन्होंने बताया कि मामाजी की कोई इच्छा नहीं थी। वे अपने जीवन से पूर्णतया संतुष्ट थे । हां, एक इच्छा अवश्य थी कि किसी विद्यालय का नामकरण उनके नाम पर किया जाए । वे सदा अपने हाथ में लाठी और साथ में एक थैला रखते थे ।उस थैले में बच्चों की के लिए गोलियां-बिस्किट आदि होते थे। उन्होंने कहा कि लाठी मेरे साथ ही जला देना । नागौर के बारे में कहा जाता है-
मेथी और असगंध महकणी, बूंटा बाजर बोरी ।
नख-शिख लखण बत्तीसों निकां, नामी नर-ना'रा नागौरी ।।
असगंध = अश्वगंधा ,ना'रा= बैल
धन्य है नागौर की वह धरा जहां पूर्णाराम जी जैसा शिक्षा समर्पित संत पैदा हुआ ।
वे निर्धन थे परन्तु कोटि धन बांट गए ।वे अनपढ़ थे परन्तु परहित का पाठ पढ़ा गए ।नारी( पत्नी ) के बिना नर अपूर्ण होता है परन्तु 'पूर्णा 'यथा नाम तथा गुण ,पूर्ण थे ।
उनका उपगौत्र' छोड़' है। वे इहलोक छोड़ हजारों विद्यार्थियों के हृदय पटल पर अमिट छाप छोड़ गए ।वे मर कर अमर हैं ।
पूर्णाराम जी अंत समय में भी अंधे नहीं हुए थे। हिये की आँख से उनके 'राम'(विद्यार्थी) हमेशा दिखते थे । अंधा तो आज का राज-समाज है जो पूर्णाराम जी जैसे शिक्षा समर्पित संत को अब भी नहीं देख पा रहा है ।स्थानीय व जिला प्रशासन ने कभी उनको सम्मानित नहीं किया ।हालांकि उन्होंने कभी मतदान नहीं किया फिर भी मेरा स्थानीय जनप्रतिनिधियों से आग्रह है कि सरकार पर दबाव बनाकर किसी शिक्षण संस्था का नामकरण पूर्णाराम जी के नाम करवाकर उनकी अंतिम इच्छा पूरी कर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करें । अंत में कहना चाहूंगा-
पाठीपूर्णा छह दशक,पूर्णकालिक सुकाम ।
छोड़ स्थाई छाप गए,' पूर्णा 'पूर्णा धाम ।।
द्विसहस द्विदश द्वि जनवरी,नव-दश पूर्ण विराम ।
'दयाराम ' शत-शत करे,'पूर्णाराम ' प्रणाम ।।
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